कोटद्वार/पौड़ी गढ़वाल:

जिस चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम से हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा, माना जाता है कि इसी जगह पर सम्राट भरत ने शेर के दांत गिने, उनकी जन्म स्थली कण्वाश्रम आजादी के 75 साल का कालखण्ड बीत जाने के बाद भी गुमनामी के अंधेरे में खोया हुआ है। हिमालय की तलहटी कोटद्वार भाबर में मालिनी नदी के तट पर स्थित कण्वाश्रम अतीत में भारतीय दर्शन संस्कृति, आध्यात्म और सभ्यता का अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके सबूत पहले 1993 और फिर अब यहां एक नाले की बाढ़ में निकले शिलाखण्डों और खंडित भवनों के अवशेषों से मिलते हैं। कण्वाश्रम के पास से गुजर रहे नाले में बहकर निकले पौराणिक शिलाखण्डों और मूर्तियों से साबित होता है कि अतीत में कण्वाश्रम अध्ययन, अध्यापन, चिंतन, शोध और संस्कृति का केंद्र रहा होगा,

“अभिज्ञान शाकुंतलम” में कण्वाश्रम का उल्लेख:

माना जाता हैं की प्राचीन काल में नालंदा की भांति भारतीय दर्शन शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता के गौरवशाली केंद्र कण्वाश्रम को दुष्यंत-शकुंतला की प्रणय स्थली और उनके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत का जन्म स्थान रहा है। महाकवि कालिदास द्वारा रचित अभिज्ञान शाकुंतलम और पुराणों में भी इसका उल्लेख मिलता है, देश का गौरव यही वह कण्वाश्रम है जहां कुलपति महर्षि कण्व के संरक्षण में विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे, लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि पुरातत्व एवं ऐतिहासिक महत्व का कण्वाश्रम आज भी घोर उपेक्षित है। सन् 1993 में यहाँ नाले में आई बाढ़ में सैकडों की तादाद में शिलाखण्ड और मूर्तियों के बहकर आने से तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार और गढवाल विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग ने इन मूर्तियों और शिलाखण्डों पर शोध की बात कही थी लेकिन समय गुजरने के बाद न तो शोधकर्ता इस पर गंभीर दिखाई दिये दिये और न ही उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी सुध ली। एक बार फिर इसी बरसाती नाले से निकले इन शिलाखण्डों और मूर्तियों के साथ ही सीढियों और दीवारों ने यह साबित कर दिया कि कण्वाश्रम में कभी फलती फूलती एक समृद्व संस्कृति और सभ्यता रही थी। पुरातत्व विभाग और सरकार ने भले ही कण्वाश्रम के अतीत की खोज की दिशा में कोई गंभीर कदम कभी न उठाया हो लेकिन कुदरत ने जरूर इस ओर इशारा किया है। बरसात में नाले की बाढ़ से निकले इन प्राचीन इतिहास के गवाह शिलाखण्डों, भवनों के अवशेषों और मूर्तियों से प्रशासनिक अधिकारी इनके संरक्षण और कण्वाश्रम को फिर से उसके अतीत का गौरव दिलाने की दिशा में कदम बढाने की बात करते रहे लेकिन यह स्थान अभी भी उपेक्षित ही पड़ा हुआ है,

सन 1956 में उत्तरप्रदेश क़े मुख्यमंत्री डॉक्टर संपूर्णानदं ने रखी कण्वाश्रम क़े विकास की नीव:

महर्षि कण्व का आश्रम और उनकी शिष्य परंपरा का यह महान ऐतिहासिक केंद्र कब और कैसे उजड गया यह जरूर एक शोध का विषय है, महान विचारक दार्शनिक विद्वान और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे डा. संपूर्णानंद ने यदि इस जगह की ढूंढ़ खोज न कराई होती तो देश का यह महानतम सभ्यता का प्रतीक और शिक्षा-संस्कृति का तीर्थ हमेशा के लिए अतीत के गर्भ में ही गुमनाम रहा होता। सन् 1956 में डा. संपूर्णानदं ने स्वयं कोटद्वार आकर कण्वाश्रम के विकास की जो नींव रखी थी एक कालखण्ड गुजर जाने के बाद भी न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र ने कभी कोई गंभीर कदम नहीं उठाया।

लगातार उपेक्षा झेलता आया कण्वाश्रम:

कण्वाश्रम के विकास के लिए लगातार यहाँ क़े लोगों ने प्रयास किया लेकिन प्रदेश में आई किसी भी सरकार ने इस जगह की महत्ता पर ध्यान नहीं दिया.. जिससे कण्व ऋषि की तपस्थली लगातार उपेक्षा झेलती रही और पर्यटन के नजरिये से यहाँ कोई भी विकास कार्य नहीं हो पाया, अब सरकार को कण्वाश्रम के विकास के लिए नए सिरे से पहल करनी पड़ेगी जिसके लिए सरकार कण्व योग महाविद्यालय जैसे संस्थान को भी मंजूरी दे सकती है, अच्छा तो यह होगा की कण्व ऋषि की तपस्थली कण्वआश्रम को महर्षि कण्व के नाम से ही विकसित किया जाना चाहिए

इतिहास क़े पन्नों में दर्ज़ हैं कैसे अस्तित्व खोती रही धरोहर:

1192 इसवी में दिल्ली में हुकूमत कायम करने के बाद मोहम्मद गौरी ने हमारे देश के धार्मिक स्थलों और धरोहरों को तहस नहस कर दिया जिसमें कण्वाश्रम भी शामिल था, 1227 इसवी में इल्तुतमिश की सेना ने उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले और मंडावर को लूटने के बाद कण्वाश्रम पर आक्रमण दिया और यह सिलसिला 16वी शताब्दी तक जारी रहा और धीरे धीरे इस इलाके से लोगो ने पलायन कर दिया,

धर्म, योग और पर्यटन का केंद्र है कण्वाश्रम:

धार्मिक और पर्यटन स्थल ‘कण्वाश्रम’ कण्व ऋषि का आश्रम है, जहाँ हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय के बाद सम्राट भरत का जन्म हुआ था, शकुन्तला ऋषि विश्वामित्र व अप्सरा मेनका की पुत्री थी, राजा भरत की जन्मस्थली कण्वाश्रम में लाखो की लागत से बना योग केंद्र भी हैं,

कैसे पहुंचे कण्वाश्रम: मालिनी नदी क़े तट पर स्थित धार्मिक,पर्यटन और योग स्थल पहुँचने क़े लिये सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन कोटद्वार हैं, कोटद्वार से कण्वाश्रम की दूरी मात्र 15 किलोमीटर की हैं, कोटद्वार से कण्वाश्रम जाने क़े लिये आप कार या फिर ऑटो की मदद ले सकते हैं,

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